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चढ़ी शिज़नी सी - साहित्य और मेरी कहानी


किस्सा उन दिनों का है जब मेरी उम्र मानव की क्रमागत उन्नति के तीसरे पड़ाव पर थी l बालपन बीत चुका था और वयस्क बनने की राह पर हम अपना पहला कदम बढ़ा चुके थे l चौदह साल की उम्र वो समय है जब आप किशोरावस्था की अनगिनत बदलावों को सम्भालने का प्रयास कर रहे होते है l शारीरिक गतिविधियाँ तो होती ही है, पर मानसिक तथा आत्मिक स्तर पर भी आप एक अजीब भावनात्मक कशमकश में फंसे होते है l यौवन का बेइंतहा प्रेम, ज्वालामुखी समान क्रोध, प्रज्वलित काठ की भाँति अचानक जन्मा द्वेष, बेवकूफियों में घातीय वृद्धि, जीत की अथक कामना, हारने का अनकहा डर, कान के पास मक्खियों के समान इधर उधर फड़फड़ाते हमारे फैसले और इन सबके ऊपर हौले हौले कंधों पर बढ़ता घरवालो की आकांक्षाओं का बोझ, ये सब कुछ किशोरावस्था के इस अजीबोगरीब सफर का हिस्सा है l मैं इस उम्र को अक्सर रात्रि के तीसरे पहर की तरह देखता हू, जब निशा का प्रभाव हल्का हल्का छटने लगे और अरुणोदय की पहली मरीचि नभ के आँगन में कहीं अपना रास्ता खोज रही हो, बालपन की भोली अज्ञानता को छोड़ हम भी सांसारिक ज्ञान को पाने दिनकर की किसी रश्मि सामान अपना रास्ता खोज रहे होते है l 


खैर भूमिका बहुत बांध ली, कहानी को आगे बढ़ाते है l तो चौदह साल की उम्र थी और हम पहुचे हुए थे अपने गांव l दूसरे बच्चों की तरह गर्मी छुट्टियों में पुणे में अपने संसार को छोड़ हम भी दादाजी के पास आ जाया करते थे l अच्छा लगता था, शहर की भाग-दौड़ में छिपी कुंठा न जाने रामबाग के बागानों में कहाँ गायब हो जाती थी l खैर यूँही एक दिन दोपहर के समय किसी मुद्दे पर बहुत गहन चर्चा हो रही थी l दादाजी, पिताजी और दादी आपस में खूब ज़ोर ज़ोर से बातें कर रहे थे l पता नहीं उस समय मेरे माथे पर कौन सी भीषिका सवार हुई की मैंने उस गहन चर्चा में अपनी एक छोटी सी टिप्पणी दे दी l मेरे दादाजी तो हँस दिए पर ये गुस्ताखी मेरे पिताजी के गले न उतरी, दादाजी का लिहाज़ करते हुए उन्होंने सीधा थप्पड़ तो नहीं चलाया परंतु कुछ चिढ़े हुए अंदाज़ में उन्होंने कहाँ, " बच्चो की बात नहीं है, बीच में मत बोल जा माँ के पास जा l" अच्छा होता अगर मैं उनकी बात मान लेता और माँ के पास चला जाता, पर मेरे मन में तो आती हुई जवानी का नया जोश हिलोरे मार रहा था l  और ये तो गुस्ताखी थी श्री श्री 108 मयंक कुमार जी की शान में, मैंने अपना पूरा मानसिक बल इकट्ठा किया और बोल पड़ा, " होगी ये बच्चों की बात पर मैं कोई बच्चा थोड़े हू l सब समझ आता है मुझे l" 


बोलते वक्त तो डर लगा था, मानो कोई शावक किसी गिरी से अपनी पहली उड़ान की छलांग लगा रहा हो, परंतु एक बार बोलने के बाद एक अजीब स्वतंत्रता की अनुभूति हुई l अपनी बहादुरी पर गर्व हुआ, आखिरकार मैने पिताजी के समक्ष मुह खोला और भाई क्या खूब खोला सबकी बोलती ही बंद कर दी l अपने मन में मैं अपना अभिषेक कर ही रहा था कि न जाने कान के पास पराध्वनिक गति से एक तीव्र बल पड़ा, अचानक शरीर का सारा हिसाब किताब बिगड़ गया l पूरी काया में कंपन सी उठ खड़ी हुई, पसीना चलने लगा, परिवेश का सारा बोध समाप्त हो गया!! दूर कहीं प्राची की दिशा तरफ एक बैल और यम दिखे l बैल दौड़ता हुआ मेरे समक्ष आया, यम बैल से उतरकर बोले, " पुत्र वैसे तो तेरा टाइम् अभी आया नहीं पर हरकते ऐसी रही तो जल्द ही आ जाएगा l जितनी उम्र हो उससे ज़्यादा ज़बां नहीं चलाते! अपना और मेरा दोनों का समय खराब कर दिया आज तूने l" थोड़ी देर में जब स्वर्ग की यात्रा समाप्त हुई और परिवेश की परिस्थिति का बोध हुआ तो पता चला कि पिताजी ने अपने लोहे से बने हाथों का जलवा दिखाया था l एक चाटा सन्न सनाता हुआ मेरे गालों पर पड़ा था!!! अब देखिए एक होता है आम बाप का थाप जो लगे भी तो एक आधे क्षण का दर्द होता है, अब ऐसे तीन सौ चाँटो को मिला दीजिए और फिर उसकी तीव्रता को बीस गुना बढ़ा दीजिए, ऐसा होता है एक फौजी के हाथ का एक थप्पड़ l 


मैने अपने आँसू रोकने चाहे, पिताजी को रोने वालों से नफ़रत है और मार पड़ने के बाद रोए तो और मार खाने के लिए तैयार हो जाइए, पर कमबख्त ये चक्षु की ग्रंथियां मेरा कहाँ नहीं मानती, इन्हें तो दर्द होता है और बस आगे नाथ और पीछे पगहिया लग जाती है, टप- टप आँसू गिरने चालू l पिताजी का चेहरा इस समय किसी टमाटर सा लाल हुआ पड़ा था ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मैं दुश्मन सेना का आखिरी सैनिक हू और मैं, केवल मैं ही उनके और विजय पताका के बीच खड़ा हू l मुझको रोता देख उनकी भौए और चढ़ गई, वो फिर लपके पर इस बार उनका हाथ पकड़ने के लिए कोई था l कभी कभी मुझे सेर को सवा सेर वाली कहावत की जगह ये बोलना बहतर लगता है कि हर पिता का कोई पिता होता है और हर पिता को अपने पिता से डर लगता है l दादाजी ने पिताजी की ओर हिकारत भरी निगाहों से देखा मानो किसी ने उनका कोई ख़ज़ाना छीन लिया हो, वैसे मैं भी किसी खज़ाने से कम थोड़े हू, शास्त्रों में पोते को सूद कहाँ गया है, मेरी भावनात्मक महत्ता के अलावा मेरा वित्तीय मूल्य भी खासा है l खैर, सूद पे हाथ डाला है तो डांट सुननी बनतीं है l तो पिताजी को डाट के कमरे में भेज दिया गया l


पर दर्द हाय दर्द का क्या करे, रोना अभी भी आ रहा था l तब दादाजी को लगा कि कुछ ध्यान भटकाने वाला काम ज़रूरी है इसलिए वो मुझे ऊपर अपने अध्ययन कक्ष में ले गए l उस दिन हमने घंटों बात की, न जाने क्या क्या पर बहुत कुछ गुस्सा, बदलते समय की परेशानियां और परिस्थितियाँ और अचानक बड़ा बनने की जल्दी l उन्होंने समझाया कि इस उम्र में अक्सर ऐसा होता है जब इंसान को लगता है कि उसे सब पता है उन लोगों से भी ज़्यादा पता है जिन्होंने उसे पाल पोस के बड़ा किया, ऐसे में ज़रूरी है कि ये इंसान को अपनी सीमा और ज्ञान का बोध रहे l सीमा का बोध तो पिताजी के थप्पड़ कराते रहेगे पर ज्ञान का बोध कैसे हो?? ये बड़ा सवाल था l इसे वार्ता के मध्य उन्होंने दो पंक्तियाँ बोली, वो दो पंक्तियाँ जिन्होंने मेरे सोच और मेधा की छोटी सी दुनिया को एक नया आयाम दिया, उन्होंने कहाँ -


कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी

सोम लता तब मनु को।

चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर

उसने जीवन धनु को।


अर्थ उस समय समझ नहीं आया,  तो दादाजी ने शब्दार्थ को तोड़ कर भाव समझाने का प्रयास किया l कवि जयशंकर प्रसाद यहा मानव जाति के प्रथम पूत मनु के माध्यम से हमे मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र समझाना चाह रहे है अर्थात कर्मसूत्र l मनु ने जीवन की शिज़नी, अर्थात जीवन की धनु डोर को तब तक न खींचा जब तक उसे कर्म का ज्ञान नहीं हुआ l अर्थात मानव जाति का अस्तित्व तभी सार्थक है अगर उसके जीवन में कर्म प्रधान हो l अगर उसे जीवन में जीने की आकांक्षा हो, उसे जीवन में प्रगति की आकांक्षा हो, उसे जीवन में हर समय कुछ नया करने कुछ नया खोजने और कुछ नया जोड़ने की आकांक्षा हो तभी उसका जीवन मायने रखता है अन्यथा उसमे और पशुओं की योनि में कुछ अधिक अंतर नहीं l 


इसने मेरे जीवन में एक नया दरीचा खोल दिया, ऐसा नहीं है मुझे कर्म का ज्ञान नहीं था वो तो मेरी माँ रोज़ देती थी कि, " अरे कुछ काम कर ले!!!!" l मेरा ध्यान गया एक आम बात को कहने के खास ढंग पर l कर्म की प्रधानता को लाखों बार लाखों तरीकों से समझाया गया है पर उसी को छंद में बांध के किसी कहानी का सहारा लेकर और शब्दकोश की झील में से मोती चुनकर बताना ये अनोखा था l और फिर मेरे जीवन में आया साहित्य l साहित्य ने मुझे इस बढ़ती उम्र की चिकनी सीढ़ी पर फिसलने से बचाए रखा l मेरी पहली दो किताबें मुझे दादाजी से भेंट में मिली, " प्रेमचंद की कफ़न" और दिनकर की " रश्मिरथी" l रश्मिरथी का मेरे जीवन पर क्या प्रभाव रहा ये मेरे करीबी जानते है, लोग एक या दो सर्ग याद करते है, पर मैं ऐसा बावला हुआ कि सातों सर्ग कंठस्थ कर गया, माफ़ कीजिएगा अगर लगे कि स्वयं को बहुत बड़ा आदमी मानता है, देखो कैसे शेखी बघार रहा है!! मैं बिल्कुल भी किसी प्रदर्शन का पात्र नहीं बनना चाहता, मैं बस रश्मिरथी के अपने जीवन पर प्रभाव परिमाण बताना चाहता था कि मैंने पूरे चार साल लगाकर उस किताब को याद किया l लोग अक्सर तीसरे सर्ग से शुरू करते है पर मैंने किसी समर्पित विद्यार्थि की तरह पहले सर्ग से शुरू किया - 


'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,

जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।

किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,

सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।


कफ़न उसी प्रकार से अंदर तक झिंझोड देने वाली कथा है, कैसे गरीबी का मारा इंसान अपनी अर्धांगिनी को दफनाने के पैसों से अपने पेट की भूख मिटाता है ये प्रेमचंद की लेखनी में छिपी गुरबत का सबूत है l साहित्य के कारण मैने जीवन में वो सब सीखा जो शायद मात्र विद्यालय जाने से कभी नहीं मिलता l कहानी, कविताए, दोहे, शेर, ग़ज़ल नज़्म आदि सब कुछ l आधुनिक हिन्दुस्तानी भाषा हिंदी, उर्दू, अरबी, फारसी, तुर्की और कुछ और भाषाओं का एक बड़ा ही अद्भुत संगम है l इसे पढ़ना कई हज़ार सालों के इतिहास, संस्कृति और संस्कारों का प्रत्यक्ष दर्शन है l


1989 में एक चलचित्र आया था ' डेड पोएटस् सोसाइटी' अर्थात मृत् कवियों का समाज, अब समाज भले ही मृत् कवियों का था पर बात उसमे पते की कहीं गई थी, फिल्म का मुख्य किरदार ' जॉन किटिंग' जिसे रॉबिन विलियम्स ने निभाया काव्य के बारे में ये बोलते है, " We don't read and write poetry because it's cute. We read and write poetry because we are members of the human race. And the human race is filled with passion. And medicine, law, business, engineering, these are noble pursuits and necessary to sustain life. But poetry, beauty, romance, love, these are what we stay alive for." बीच में रोमन लिपि के लिए क्षमा प्रार्थी हू पर जो जिस लिपि में कहा गया हो उसे उसमे दिखाना बेहतर है l खैर इसका अर्थ ये हुआ कि हम कविताएं इसलिए लिखते पढ़ते नहीं है क्यूँकि ये सुंदर और प्रवीण है, हम कविता पढ़ते है क्योंकि हम मानव सभ्यता तथा समाज का हिस्सा है l और मानव सभ्यता की नीव है जुनून, राग, उत्साह, जोश और ओज l चिकित्सा, कानून, व्यवसाय, प्रोद्योगिकी सभी अच्छे काम है और जीवन के चलते जाने हेतु आवश्यक भी है l पर कविता, सौंदर्य, श्रृंगार, प्रेम इनके लिए ही हम जीवित है और इनके बिना जीवन का कोई बोध नहीं l


इसीलिए अंत में यही कहूँगा की पढ़िए, कुछ भी पढ़िए जो जी चाहे पर पढ़िए, वर्ना कब आपके जीवन से रस खत्म हो जाएगा और कब आप मात्र इस इंसानी जिंदान में कैद एक मशीनी रोबोट बन जाएगे आपको पता भी नहीं लगेगा l अंत में मजरूह सहाब के एक शेर के साथ आपको छोड़ता जाता हू उम्मीद है आप और आपका परिवार स्वस्थ और सुखी रहे l


वो अगर बात न पूछे तो करें क्या हम भी 


आप ही रूठते हैं आप ही मन जाते हैं 


बुलबुलो अपनी नवा फ़ैज़ है उन आँखों का 


जिन से हम सीखने अंदाज़-ए-सुख़न जाते हैं


रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या 'मजरूह' 


हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं 


-मजरूह सुल्तानपूरी 


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