
रामवृक्ष बेनीपुरी
- Mayank Kumar
- Jul 31, 2023
- 4 min read
गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्त होता है।
गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्या चाहते हैं - पुष्ट शरीर या तृप्त मानस? या पुष्ट शरीर पर तृप्त मानस?
-रामवृक्ष बेनीपूरी
अपनी अनुपम शैली के कारण बेनीपूरी को ' कलम के जादूगर' का खिताब हासिल था l हिन्दी साहित्य के वर्तमान युग के शैलीकारो में उनका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है l विशेषकर अगर शब्द-चित्र के क्षेत्र में देखा जाये तो इनका शायद ही कोई सानी मिल पाए l चित्रण की अप्रतिम प्रतिभा उन्हें मयस्सर थी l इनके शब्द चित्रण के सम्बंध में बनारसी दास चतुर्वेदी ने कहाँ था, " यदि हमसे प्रश्न किया जाये कि आज के ज़माने में हिंदी का सर्वश्रेष्ठ शब्द - चित्रकार कौन है, तो हम बिना संकोच के बेनीपूरी जी का नाम प्रस्तुत कर देगे l कविराज मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में," बेनीपूरी जी की लेखनी जादू की छड़ी जैसी थी l "
बेनीपूरी जी की लेखन शैली की सबसे बड़ी विशेषता है उसपर उनकी व्यक्तिव की अमिट छाप l किसी भी लेखक के लिए उसका व्यक्तित्व सबसे महत्वपूर्ण होता है l इसी दृष्टि को ज़हन में रखकर वफन ने कहाँ था, " शैली ही व्यक्तित्व है l" जिस प्रकार हम किसी मित्र की आहट पाते ही पहचान लेते है ठीक उसी प्रकार लेखक भी दो - चार पंक्तियाँ पढ़कर ही कह देते है कि अमुक कृति किस कलमकार की है l बेनीपूरी जी के तूफानी जीवन की देन है उनकी उच्छल - चंचल - उन्मद भाषा l इनके लेखन में जवानी की ताजगी और वासंतिक सुषमा के साथ साथ परिणित वयस का गंभीर चिंतन भी है l लेखक के क्रांतिकारी विचारो का प्रभाव उसकी भाषा के ऊपर अनिवार्य रूप से पड़ता है l बेनीपूरी जी जिस सांस्कृतिक नवोत्थान के समर्थक थे, उसके लिए ऐसी तल्ख भाषा अपेक्षित है l
किसी भी लेखक की शैली में मार्मिकता और प्रभावोत्पादकता तभी आती है जब लेखक जीवन - सागर में गोते लगाकर वहाँ से कटु-मधु अनुभवो के मोती प्राप्त करे और अपनी नौका को जीवन सागर में अकेले खेने का साहस रखता है l जिसने स्वयं जीवन के हलाहल का पान नहीं किया, उसकी शैली में विद्ग्धता और मार्मिकता नहीं आ सकती l लेखक अपने अनुभवों को पाठक के हृदय तक पूर्णतः सफल होता है, वस्तुतः तभी हम उसे शैलीकार बोल सकते है l एक लेखक की शैली उसका पैरहन नहीं है वो उसकी छाया है, उसे बदलना, छोड़ना, काटना सम्भव नहीं l जब तक कलम और कलाम का परचम ऊँचा है शैली भी उसी पताका की परछाई भाँति अजर अमर और शास्वत रहेगी l
बेनीपूरी जी की रचनाएं माधुर्य, ओज तथा प्रसाद की एक अनोखी त्रिवेणी का प्रवाहमान समुद्र है l ये गुण अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इनके साहित्य में वर्तमान है l माधुर्य का एक छोटा सा उदहारण देखिए, " वेदना जब संगीत बन जाए, व्यथा जब रागिनी का रूप धारण कर ले प्रेम की सार्थकता तब ही सिद्ध होती है l" ' गेहू और गुलाब' के अधिकतर चित्र माधुर्य से ओत प्रोत है l ओजस् से युक्त पंक्तियाँ हमे अम्बपाली में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है l अजातशत्रु के आक्रमण पर अम्बपाली नागरिको को संबोधित करते हुए कहती है, " क्या कहने है, अगर वो भिक्षु हो चुका है तो आखिर हम पर क्यों चढ़ दौड़ा है? क्या भिक्षुओं की सेना तलवार लेकर चलती है? गांवो को जलाती है? फ़सलों को रोंदती है और आदमी के खून से ज़मीन को सींचती है?" l इसी प्रकार महात्म्य चेतक के उपदेश पश्चात अंबा कहती है, " वैसा ही होगा महात्म्य! अंबपाली सिद्ध कर देगी, वह गौरी ही नहीं, दुर्गा भी है l वह सोहणी ही नहीं, भैरवी भी सुना सकती है l"
और प्रसाद गुण से तो बेनीपूरी जी का साहित्य परिपूर्ण है l इनकी विशेषता ही ये है कि से गंभीर से गम्भीर दृश्य को भी प्रसादमयी शैली में व्यक्त कर उसे सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य बना देते थे l ' गेहू और गुलाब' में इनकी एक पनिहारिन कहती है, " भगवान मुझसे अब ये गागर नहीं ढोई जाती, मेरी रक्षा करो l या तो मेरे सर से ये गागर उतारो या अपनी ये विराट गागर विश्व को फोड़ दो l" ऐसे प्रसादमयी थे बेनीपूरी जी l
बेनीपूरी जी ने लगभग सत्तर पुस्तके लिखी है जिसमें नाटक, एकांकी, शब्द चित्र, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, राजनैतिक लोगों की जीवनी, साहित्यिक टीके, यात्रा साहित्य तथा बाल साहित्य - सब कुछ सम्मलित है l अपनी मृत्यु से कुछ ही वर्ष पूर्व इन्होंने अपने समस्त लेखन को ' बेनीपूरी ग्रंथावली' के से भागो में करने विचार था l इनमे से तीन खंड प्रकशित भी हो है l पहले खंड में कहानिया, एकांकी और नाटक थे, इसी प्रकार बाकी के दो खंड भी उनके प्रकाशित और अप्रकाशित गद्य का एक संग्रह था l इसमे प्रकाशित कुछ कृतियां जैसे माटी की मूर्त, पतितो के देश में, लाल तारा आदि शामिल है l अगर अन्य पुस्तकों के बारे में जानना है तो उसमे आपको कार्ल मार्क्स, रूस की क्रांति, जयप्रकाश की विचारधारा जैसे नाम मिलेगे जो उनकी सामाजिक मानसिकता के रूपक है l अंततः ७ दिसम्बर, १९६८ में उनका देहांत हो गया l
भले ही आज उनको गए पचासों साल बीत गए पर उनका लिखा हुआ आज भी मार्मिक है l ये बात अच्छी है या बुरी पता नहीं l ये एक तरफ़ तो बेनीपूरी जी के समय के कई साल आगे की दृष्टी का प्रमाण है तो दूसरी ओर हमारे समाज के पिछड़ेपन की निशानी है l खैर शब्द अक्षर से बने हुए हैं, अक्षर का अर्थ होता जिसको क्षरित न किया जा सके l बेनीपूरी जी हम सभी की किताबों में और हृदय में जीवित रहेगे l
" पृथ्वी और आकाश के तत्व एक विशेष प्रक्रिया से पौधों की बालियों में संग्रहित होकर गेहूँ बन जाते हैं l उन्हीं तत्वो की कमी हमारे शरीर में भूख का नाम पाती है l"- गेहूँ और गुलाब
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