बहुत कुछ था
- Mrityunjay Kashyap

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बुरी कुछ बात थी अच्छा बहुत कुछ था,
अगर तुम सुन सको कहना बहुत कुछ था।
करें हम दिल-लगी किससे ज़माने में,
हँसी में अब उन्हें चुभता बहुत कुछ था।
यक़ीनन क़ाबिल-ए-तहरीर हम ना थें,
लिखी हर बात को समझा बहुत कुछ था।
मिलाते अब नहीं वो भी नज़र हमसे,
निगाहों को गिला-शिकवा बहुत कुछ था।
लगे अनजान आईना में यह सूरत,
वहाँ मुझमें कभी मुझ-सा बहुत कुछ था।
तड़पता है दरख़्त-ए-दिल ख़िज़ाँ में यूँ,
गँवाया बेवजह अपना बहुत कुछ था।
मिलाओ हाँ में हाँ तो नेक मानेंगे,
ख़िलाफ़-ए-राय में चुभता बहुत कुछ था।
किया करते थे बातें वो बहुत हमसे,
फिर उस के बाद यूँ बदला बहुत कुछ था।
चराग़ों से उजाला चाहे परवाना,
हमेशा ही ग़लत लगता बहुत कुछ था।
सहर की आस में जागा रहा 'मुतरिब',
शब-ए-ग़म बीती तो बिखरा बहुत कुछ था।
ग़ज़ल कहता नहीं दाद-ए-सुख़न ख़ातिर,
ये 'मुतरिब' बावला बकता बहुत कुछ था।







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