स्मृतियाँ: एक दार्शनिक अभिव्यक्ति
- Shikhar Singh
- Jun 12
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मुझे अक्सर पुरानी बातें याद आती हैं। ऐसी बातें जो किसी दौर में हृदय को भा गई, मन में एक विशेष स्थान ले लेती हैं। यह कुछ भी हो सकता है -प्रेम, विरह, त्योहार, आदि। यह बातें जीवन पर एक गहरा प्रभाव डालती हैं और मैं यहाँ तक मानता हूँ कि यह जीवन का प्रारूप गढ़ती हैं। आप अब तक समझ गए होंगे कि मैं किस ओर इंगित कर रहा हूँ। जी हाँ -स्मृतियाँ । मुझे शब्दों की परिभाषा पसंद है। यह एक गहरा शब्द है, परंतु चलिए हम प्रयास करते हैं। ऐसे कुछ क्षण जो समय के निरंतर प्रभाव से थक जाते हैं और हमारे हृदय में शरण ले लेते हैं, उन्हें यह संज्ञा प्राप्त है। 'स्मृतियाँ' आत्मचिंतन के लिए कई बार बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। मैं यह कहूँ कि स्मृतियों का चेतना के प्रवाह और अपवर्ग की कामना पर प्रभाव पड़ता है तो यह अतिशयोक्ति न होगी। यह दर्शन और आध्यात्म के कई गहरे प्रश्नों का उत्तर दे सकती हैं। आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसे दावे कर रहा हूँ, परंतु मैं इन्हें क्रमशः समझा सकता हूँ।

दर्शन में तत्वमीमांसा के अध्ययन के दौरान एक कठिन प्रश्न उभरता है-आत्मा को लेकर। सभी संप्रदाय इस प्रश्न का उत्तर अलग ढंग से देते हैं। भारतीय दर्शन में चार्वाकों के अलावा लगभग सभी आत्मा होने की बात को मान्यता देते हैं। उनमें से एक दर्शन यह कहता है कि हमारे शरीर में आत्मा की उपस्थिति जन्म से होती है पर उसमें चेतना समय के साथ उत्पन्न होती है। मैं इस विचार से प्रायः सहमत हूँ परंतु मैं इसे स्मृतियों से जोड़कर देखता हूँ। यह जिस चेतना के परिपेक्ष में बात की गई वह स्मृतियों से उत्पन्न होती है। एक शिशु जब जन्म लेता है वह कई इंद्रियों से युक्त होता है। उदाहरण के लिए स्पर्श करना, देखना, सुनना आदि। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसके भीतर आत्मा जन्म के समय से ही मौजूद होती है। अब यह समझना जरूरी है कि उसमें चेतना का उदय कैसे होता है।
हम इस संसार में अनेक चीजों से जुड़ते हैं। हम उन्हें समझने का प्रयास करते हैं और यह किसी ने किसी ढंग से होता होगा। कोई जीव है, उदाहरण के लिए- एक व्यक्ति। हमारे मन में उसके प्रति कुछ विचार होते हैं, वह विचार प्रायः स्मृतियाँ होती हैं। इसका अर्थ है कि हम एक व्यक्ति को उससे जुड़ी हुई स्मृतियों के आधार पर समझते हैं। यदि हम किसी नए व्यक्ति से मिले तो उसका व्यवहार कैसा होगा, यह उन स्मृतियों पर निर्भर करता है कि उससे पहले हम किस प्रकार के लोगों से मिले हैं। यदि उस परिवेश में हमारी मुलाकात सभी अच्छे लोगों से हुई है, तो हमारी उम्मीद होती है कि वह नया व्यक्ति भी अच्छा ही होगा।
अब किसी निर्जीव चीज के परिपेक्ष में समझते हैं। आपने महसूस किया होगा की कोई पुरानी वस्तु अगर खो जाए या टूट जाए तो हृदय को एक अजीब-सा आघात पहूँचता है। वह वस्तु भले ही आप उपयोग में न लाते होंगें, परंतु हमें उससे एक जुड़ाव महसूस होता है। यह स्पष्ट है कि एक वस्तु हमारे लिए वह भाव नहीं महसूस करती होगी जो हम उसके लिए करते हैं। इसका अर्थ है कि एक वस्तु के प्रति हमारे मन में जो भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, वह 'स्मृतियाँ' हैं। यह समझने के लिए पर्याप्त है कि हम इस संसार की लगभग हर चीज चाहे वह जीव हो या निर्जीव हो, उसे स्मृतियों के माध्यम से समझते हैं। यदि जन्म के पश्चात हर चीज से जुड़ने का आधार स्मृतियाँ हैं तो क्या यह सार्थक नहीं की आत्मा में चेतना का प्रवाह भी स्मृतियों के कारण होता है?
एक वाक्य का चयन मैंने किया था- 'हम इस संसार में अनेक चीजों से जुड़ते हैं।'यह वाक्य सुनने में असहज लगता है। असहज क्यों? व्यक्ति व्यक्ति से जुड़ता है और जुड़ना भी चाहिए, समाज को बरकरार रखने के लिए यह आवश्यक है। क्या चीजें हमसे जुड़ती हैं? हाँ, चीजें हमसे न सिर्फ जुड़ती हैं, वे हमें बाँधती है। इस परिवेश में लगभग हर चीज से हमारी कुछ स्मृतियाँ होती हैं, वे हमारे हृदय में एक स्थान रखती हैं। मैं एक उदाहरण से समझाता हूँ। एक प्रेमिका ने अपने प्रेमी को कुछ ख़त दे रखे होंगे और वे बिछड़ गए। कई वर्षों बाद जब प्रेमी को वह ख़त किसी पुरानी किताब में रखे मिले तो उसे एक जुड़ाव महसूस होगा और उसकी आँखें अवश्य नम होगी। भले ही वह विच्छेद तनावपूर्ण हुआ हो, फिर भी ऐसा होगा। उस प्रेमी की भावनाएँ अपनी प्रेमिका से जुड़ी और समाप्त हो गई, परंतु प्रेम का जो आदान-प्रदान उन दोनों ने किया, उसकी स्मृतियाँ उस ख़त में थी। जुड़ाव अब व्यक्ति से नहीं बल्कि वस्तु से है। वस्तुएँ हमसे जुड़ती हैं, उनके जुड़ने का कारण कुछ भी हो सकता है। वे कई बार अनायास ही हमसे जुड़ जाती हैं और कई बार किसी व्यक्ति से जुड़ाव की स्मृतियाँ किसी वस्तु में घर कर बैठ जाती हैं। इसका अर्थ है कि हमारी आत्मा हमारे शरीर के भीतर है, परंतु उस आत्मा में जिस चेतना का प्रभाव होता है, वह 'हमारे' और 'हमसे जुड़ी हुई वस्तुएँ' दोनों के भीतर होती है। यह थी- स्मृतियों की दार्शनिक विवेचना।
अब इस वाक्य के, जिसे मैने आरंभिक अनुच्छेद में लिखा था, उसके बारे में बात कर लेते हैं ।'स्मृतियाँ जीवन का प्रारूप गढ़ती हैं।' इस पर पहला तर्क स्मृतियों के दार्शनिक विवेचना से आता है। एक व्यक्ति का जीवन यदि सबसे ज्यादा किसी एक चीज पर निर्भर करता है, वह है- उसमें चेतना का प्रभाव कैसे हुआ। यहीं से एक व्यक्ति की मौलिक जड़ें उत्पन्न होती है। अब बात करते हैं- दूसरे तर्क की।
कुछ पंक्तियाँ हैं-
बीते क्षण,
लौटते नही।
बस झाँकते हैं मन की झीलों में-
प्रतिबिंब बनकर।
उपर्युक्त पंक्तियों में स्मृतियों को जीवन का 'प्रतिबिंब' बताया गया है। उन्हें समझ लेने भर से यह लगभग स्पष्ट हो जाता है कि हमने अपने जीवन में अब तक क्या किया। वह तमाम निर्णय जो विभिन्न परिस्थितियों में लिए गए वह किस स्तर तक सही थे। 'सही' की परिभाषा पर एक अलग विवाद है, परंतु अभी के लिए हम उसे सामाजिक और मौलिक आधारों पर मान लेते हैं। जीवन के हर पड़ाव पर जो सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न होता है, उसके उत्तर में हमारे पुराने निर्णय एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। कोई एक खयाल जो यूँ ही पनप उठे, मुमकिन है कि वह सामाजिक परिवेश से स्वतंत्र हो पर वह स्मृतियों से स्वतंत्र नहीं हो सकता। यह निर्भरता हमें नजर आए न आए, परंतु यह होती अवश्य है। इन तर्कों से यह लगभग साफ हो जाता है कि स्मृतियाँ जीवन का प्रारूप करती है।
यदि आप ध्यान से देखें तो 'जीवन' स्मृतियों पर निर्भर करता है, परंतु 'स्मृतियाँ' जीवन से स्वतंत्र होती हैं। आपका निर्णय स्मृतियों को कुछ स्तर तक प्रभावित कर सकते हैं, परंतु भूत में वह स्वयं कहीं न कहीं उनसे प्रभावित होते हैं। स्मृतियाँ किसी हिमनद से निकलती हुई उस धारा की तरह है, जिसे हम लाख प्रयत्न कर लें, न रोक सकते हैं और न उसकी दिशा में कोई परिवर्तन कर सकते हैं। यदि स्मृतियाँ आत्मा में चेतना के प्रवाह को संभव करती हैं और जीवन के प्रारूप को गढ़ती हैं, तो क्या यह उचित नहीं कि हम ईश्वर की नीतियों पर प्रश्न करने से बचें और इस धारा के साथ बहते जाएँ?
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