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रघुनाथ का प्राकट्य

नवमी तिथि, शुक्ल पक्ष चैत्र मास,

पावन काल जब चहुं ओर उल्लास,

नर, नाग, धेनु, संत, सुर सम्पत हेतु,

अवतरें मानवी वेष, बन रघुकुलकेतु!

जिन लोचन में समाएं समस्त सृष्टि,

अश्रु युक्त पुष्कर हुईं आज वें दृष्टि।

जो विशाल भुजाएं धरें आयुध चार,

तरुण कमल सरिस लिन्ह अवतार।

जिनकी ज्ञान वाणी सर्वत्र अर्चित,

सो‌‌ आज‌ करतें रुदन से मोहित

जो निखिल, आदि अंत ज्ञात नहीं,

झूले हिंडोला, शिशु लीला करें वही!

शशांक सूरज जिनकी नेत्र गोलक,

सो भक्त हित कारण बने बालक !

कह न सके वेद जिनकी आयुषी गाथा,

नहीं वर्णै सके शेष सहस्र मुख साथा,

है अनंत आकाश सदृश जिनका भाल,

करते पूजन जिनका स्वयं निशाल,

रहें जग जिनकी आकांक्षा से हर्षलीन,

सार्थक सब माया जिनके अधीन,

जो रघुकुल कुमुद कानन को मयंक,

देव जिनके देवांगशू, जो हैं प्रियंक,

जो निगमागम के हैं गरिमा धारी,

आरती करें देव- दनुज बारंबारी,

विनय करूं जिनसे जोड़ दोनों हाथ,

प्रकट भए सो कृपानिधान रघुनाथ !

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